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भाव-भक्ति / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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पादप के पत्ते हैं प्रताप के पताके हरे,
क्यारियाँ सुमन की सुमनता सँवारी हैं;
तेरे अनुराग-राग ही से रंजित है उषा,
नाना रवि तेरे तेज ही से तेजधारी हैं।
'हरिऔधा' तेरे रंग ही में रजनी है रँगी,
विधु की कलाएँ कर-कंज की सुधारी हैं;
महा प्रभावान पूत नख की प्रभा से लसे
सारे नभ-तारे तेरे पग के पुजारी हैं।
सेमल को लाल-लाल सुमन मिले हैं कहाँ,
पीले-पीले पुष्प दिए किसने बबूलों को;
तुली तूलिकाएँ ले-ले कैसे साजता है कौन
सुललित लतिका के कलित दुकूलों को।
'हरिऔधा' किसके खिलाए कलिकाएँ खिलीं
दे-दे दान मंजुल मरंद अनुकूलों को;
किससे रँगीली साड़ियाँ हैं तितली को मिली,
कौन रँगरेज रँगता है इन फूलों को?
किसके करों से है धावलिमा निराली मिली,
किसके धुलाए हैं धावल फूल धुलते;
किसके कहे से ओस-बिंदु सुमनावली के
मोहकर मानस हैं मोतियों से तुलते।
'हरिऔधा' किसके सहारे से समीर द्वारा
मंजुल मही में हैं मरंद-भार ढुलते;
किसके लुभाने के बहाने मनमाने कर
रात में खजाने रत्न-राजि के हैं खुलते।
झर-झर झरने उछाल वारि-बिंदुओं को
अंक किसका है मंजु मोतियों से भरते;
पादप के पत्तो हिल-हिल हैं रिझाते किसे,
खिल-खिल फूल क्यों सुगंधा हैं वितरते।
'हरिऔधा' किसी ने न इसका बताया भेद,
सकल फबीले फल क्यों हैं मन हरते;
बजते बधावे क्यों उमंग-भरे भृंग के हैं,
क्यों हैं रंग-रंग के विहंग गान करते?
कामना-कलित-कलिका को है खिलाता कौन,
मधु है मिलाता कौन मानस-हिलोरे में;
कौन है विलसता सरस वासना के मधय,
रस भरता है कौन प्रमद कमोरे में।
'हरिऔधा' लालायित होती है ललक काहें,
कौन लसता है लोक-लालसा के कोरे में;
कौन लाभ हुआ लोने-लोने लोचनों के मिले,
जो न लाली लाल की दिखाई लाल डोरे में।
लगन लगे भी लालसाएँ जो ललाती रहीं,
कैसे तो न लोक-लाल लोलुपों को टोकेंगे;
वसुधा विकासिनी विभूति-विरहित जन
सुधा को प्रवाह कैसे मानस में रोकेंगे।
'हरिऔधा' कैसे कांत-कामना-विहीन कर
मनुजात जीवन-महान-फल लोकेंगे;
जो न बने मानस-मुकुर मल-मोचन, तो
कैसे लोक-लोचन को लोचन विलोकेंगे।
किस लोक मंजु की महान मंजुता से रीझ
महँक रही है वायु महँक अधिक ले;
किस मधु-सिंधु को सुनाता है मधुर गान
अति कमनीय तान मधु प रसिक ले।
'हरिऔधा' कूक-कूक किसे है बनाता मुग्ध
रुचिर रसाल-मंजरी का रस पिक ले;
किसे अवलोके फूल खिलते अघाते नहीं,
किसके विलोके कुंद के हैं दाँत निकले।
जिसकी पुनीत भावना में उर लीन रहे,
क्या न वह भाव-भरी मुरली बजाएँगे;
क्यों न रोम-रोम में भरेंगे तमहारी तेज,
क्या न मीत जन को अमीत कर पाएँगे।
'हरिऔधा' जिसकी सजीवता सजीवन है,
लोग जाग जिससे जगत को जगाएँगे;
क्या न वह गान फिर गाएँगे कृपानिधान,
क्या न वह मंजु तान कान को सुनाएँगे।
किसे लाभ कर महि महिमामयी है हुई,
किसकी पुनीत केलि कीर्ति-कलसी-सी है;
मानवता किसकी महान मति से है लसी,
दानवता किसके पदों से गयी पीसी है।
'हरिऔधा' ऐसी पति-देवता कहाँ है मिली,
किसकी प्रतीति प्रीति प्रगति सती-सी है;
कौन पाप-पीन-जन पातक-निकंदिनी है,
कौन जग-बंदिनी जनक नंदिनी-सी है।