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दुख / अचल वाजपेयी
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उसे जब पहली बार देखा
लगा जैसे
भोर की धूप का गुनगुना टुकड़ा
कमरे में प्रवेश कर गया है
अंधेरे बन्द कमरे का कोना-कोना
उजास से भर गया है
एक बच्चा है
जो किलकारियाँ मारता
मेरी गोद में आ गया है
एकान्त में सैकड़ों गुलाब चिटख गए हैं
काँटों से गुँथे हुए गुलाब
एक धुन है जो अन्तहीन निविड़ में
दूर तक गहरे उतरती है
मेरे चारों ऒर उसने
एक रक्षा-कवच बुन दिया है
अब मैं तमाम हादसों के बीच
सुरक्षित गुज़र सकता हूँ