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ऐ लड़की-4 / देवेन्द्र कुमार देवेश
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ऐ लड़की,
कैसे चली आई थी तुम थामकर मेरा हाथ
मेरे पीछे विदा-वेला में हँसते-मुस्कराते -
माँ-बाप, भाई-बहन, बंधु-बांधव, सखी-सहेलियाँ,
पास-पड़ोस और गाँव-जवार
ज़बर्दस्ती रोने की करते हुए
ज़बर्दस्त कोशिश के साथ प्रतीक्षारत था
दान की गई बछिया का करुण रुदन सुनने को।
बेटी-विदाई के अवसर पर होने वाले
पारंपरिक, बहु-प्रचलित और सर्वापेक्षित विलाप को
अपने होंठों की मुस्कान में समेटकर
किस भरोसे पर जज़्ब किया था तुमने अपने भीतर?
किस पर विश्वास था? तुम्हें सबसे ज़्यादा?
अपनी प्रार्थनाओं पर,
मुझसे लिए गए सात वचनों पर,
हथेली पर गहरे लाल उग आई मेंहई पर
अथवा मुझे परखकर लिए गए अपने फ़ैसले पर?