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ओळूं / जनकराज पारीक

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ठेला-ठेल मची सड़कां पर,सुस्तांवण न कठै न ठांव ।
इण माया नगरी में आई , ओळूं थांरी म्हारा गांव ॥
              मिनखपणै रो काळ अठै है,
               पड़्यो प्रीत रो टोटो ।
               ऊपर सूं है घणो फ़ूटरो,
               मन रो माणस खोटो ॥
अठै तीख रो तपै तावडो़ , अठै कठै है बड़ री छांव ।
इण माया नगरी में आई , ओळूं थांरी म्हारा गांव ॥
               अब झूरां बां धरकोटां पर,
               झिरमिर पड़तो पाणी ।
               लारै रै’गी सुख री घड़ियां,
               करती गाणी - माणी ॥
अथै बजारां सुपना बिकग्या,भरी भीड़ में हरया दांव ।
इण माया नगरी में आई , ओळूं थांरी म्हारा गांव ॥
               अठै भीड़ में फ़िरै भटकता,
               बण्या लोग बिणज्यारा ।
               अठै कठै "कासम" री का’णी
               हुणतै रा हुंकारा ॥
अठै है गीत कठै पिणघट रा, अठै सुणौ कागां री कांव ॥
इण माया नगरी में आई , ओळूं थांरी म्हारा गांव ॥