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गूंज‘र पड़गूंज / कन्हैया लाल सेठिया

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सुण‘र
कलम पूंगी री
धुण
डोलावै
फण
काळ
पण कती‘क ताल
रै‘सी भूल्योड़ो
सभाव ?
चुकलतां ही
उमर री
आंगल्यां
मारसी डंक
पण मैं निसंक
करती रै‘सी
एक मेक
धरती‘र आभै नै
म्हारै गीतां री
गूंज‘र पड़गूंज !