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अरे निऊँ रौवै बूढ़ बैल / हरियाणवी

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

अरे निऊँ रौवे बूढ़ बैल,

म्हने मत बेचै रे, पापी!

तेरे कुल कोल्हू में चाल्या

नाज कमा कै तेरे घरां घाल्या

इब तन्ने कर ली है बज्जर की छाती ।

तेरा बज्जड़ खेत मन्ने तोड्या,

गडीते न मुँह मोड्या,

इब मेरी बेचै से माटी ।

मेरी रै क्यों बेचै से माटी?

अरे निऊँ रौवै बूढ़ बैल ।


भावार्थ

अरे यूँ रो रहा है बूढ़ा बैल--'मुझे बेच मत, ओ पापी! मैं तेरे सारे परिवार के कोल्हू में जुता हूँ (यानी तेरे 

परिवार को पालने के लिए सारे काम मैंने किए हैं )। तेरे घर को मैंने अनाज से भर दिया और अब तूने अपना

हृदय वज्र के सामान सख़्त बना लिया है । मैंने पूरी तरह से बंजर तेरे खेत को भी जोत-जोत कर उपजाऊ बना

डाला । गाड़ी (छकड़ा या बैलगाड़ी) में जुतने से भी मैंने तुझे कभी इंकार नहीं किया । और अब तू मेरी मिट्टी--

मेरी यह वृद्ध देह--बेचने जा रहा है । अरे भाई, क्यों बेच रहा है तू मेरी यह मिट्टी ?' बूढ़ा बैल यह कह-कह

कर रो रहा है ।