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ऋतु यात्राओं की / गुलाब सिंह
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जलती यहाँ
वहाँ बुझ जाती
आग अलावों की
गोरी कभी साँवली दिखती
काया गाँवों की।
सन्नाटे को चीर गया है
शंख शिवाले का,
माँ की गोद दे गईं भाभी
दीप उजाले का,
किलकारी की किरण काटती
धुन्ध अभावों की।
आँसू भीगी शाम
दूध से भीगे हुए सबेरे
खाली घर-सी आँखों में
बस कल के रैन बसेरे
फटे हुए आँचल भर
गाँठें बँधी दुआओं की।
मिट्टी की दहलीज पुरानी
साँकल लगे किवाड़े,
बरगद-बाँस धूप-सूरज के
आ जाते हैं आड़े,
ठंडे नंगे पाँव, और यह-
ऋतु यात्राओं की।