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फिर भी क्यों / शमशेर बहादुर सिंह

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फिर भी क्यों मुझको तुम अपने बादल में घेरे लेती हो ?

मैं निगाह बन गया स्वयं

जिसमें तुम आंज गईं अपना सुर्मई सांवलापन हो ।


तुम छोटा-सा हो ताल, घिरा फैलाव, लहर हल्की-सी,

जिसके सीने पर ठहर शाम

कुछ अपना देख रही है उसके अंदर,

वह अंधियाला...


कुछ अपनी सांसों का कमरा,

पहचानी-सी धड़कन का सुख,

-कोई जीवन की आने वाली भूल!


यह कठिन शांति है...यह

गुमराहों का ख़ाब-कबीला ख़ेमा :


जो ग़लत चल रही हैं ऎसी चुपचाप

दो घड़ियों का मिलना है,

-तुम मिला नहीं सकते थे उनको पहले ।


यह पोखर की गहराई

छू आई है आकाश देश की शाम ।


उसके सूखे से घने बाल

है आज ढक रहे मेरा मन औ' पलकें,-

वह सुबह नहीं होने देगी जीवन में !

वह तारों की माया भी छुपा गई अपने अंचल में ।


वह क्षितिज बन गई मेरा स्वयं अजान ।


(रचनाकाल : 1938 )