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घन कुन्तल-मेघ घिरे / राजेन्द्र गौतम
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दिंग्नूपुर झनक उठे
घन कुन्तल-मेघ घिरे
कब सुध-बुध क्षण-पल की
चम-चम-चम जब चमकी
चंचल-चंचल जल की
हीरक-सी छवि, छलकी
ऐसी रस-धार बही
मन डूबे, डूब तिरे
चेतनता तन की हर
रहा अन्धकार उतर
अम्बर, भू-आँगन भर
यौवन की उठे लहर
ज्वार राग का उमडा
बन्धन-तट टूट गिरे
रोम-रोम रोमांचित
तन्द्रिल, विश्लथ, कम्पित
हास-सुधा-उर-सिंचित
हुए अधर-पुट कुंचित
दल के दल शतदल के
आनन पर आन फिरें
जब कुन्तल-मेघ घिरे
घन कुन्तल-मेघ घिरे