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शहर में रात

रचनाकार: केदारनाथ सिंह

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बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा

वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे हैं उलझ गए जीने के सारे धागे यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गायें

यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी ज़्यादा-से-ज़्यादा सुख सुविधा आज़ादी तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में

साथियो, रात आई, अब मैं जाता हूँ इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें