घर में सुबह / रमेश रंजक
सुर्ख़ हुई कनपटी मकानों की
आँख खुली अन्धे दालानों की
गुज़र गई किरण चपत मार कर
अनबुहरे आँगन को पार कर
कंजी आँखों वाली रोशनी
कमरे में झाँकने लगी
दीवारों की टँगी कमीज़ों पर
धूप बटन टाँकने लगी
दो पहरी कालिमा निखार कर
अबटन-सा लेप गई द्वार पर
नंगी हो गईं चारपाइयाँ
अलस भरी चूड़ियाँ बजीं
घुली-घुली मिट्टी में स्नान कर
कलमुँही अँगीठियाँ सजीं
सर्पीली धूमिल मीनार पर
बैठ गया सन्नाटा हार कर
छोटे-छोटे क़दम शराब के
नापने लगे खुला सहन
बाँहों भर प्यार ढूँढ़ने लगा
अश्रुहीन आँख का रुदन
रीझ गई गोद गीतकार पर
आँचल के बेसुरे सितार पर ।