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नख-शिख / मदन वात्स्यायन
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आकाशगंगा में न बहते द्वीप होत हैं,
न उषा से पहली किरण में कोई रंग
प्रिये दोनो ओर तेरे काले बालों के
बीच में तेरी माँग है ।
रूप सागर के तीर पर मेरी कल्पना ने सुना प्रकृतिश्री
कह रही थी---
रूपवानों मैं नारी हूँ
नारी के अंगों में नाक
नाकों में सुश्री प्र की नासिका
चाँद में है
ठण्डी रोशनी
पुतलियों में तेरी
अन्धकार चमाचम
उसके पत्ते सारे ज़िन्दगी लाल किसलय रहते हैं
जिनकी कोरों में खिलती हैं बारहों मास बेलियाँ---
प्याली अलका के नाजुक वसन्त के
या तेरी हँसी के ।
बेली की कौड़ियों जैसे तेरे नन्हें नन्हें हाथ
जो मेरी अंजलि में बसते थे
माँ के डैनों तले
चूजों जैसे ।
बेगहनों के तेरे गोरे अंग है और
बेलबूटों की तेरी श्वेत साड़ी
चारों ओर उजले बादल हैं
और ग्लावा चमक रही है