भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फुटकर शेर / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:53, 29 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कांतिमोहन 'सोज़' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1.
 क अजब ख्वाब में एक उम्र गुज़ारी हमने
सर पे हर शख्स के पापोश थे दस्तार न थे ।
ईंट गारे में मुझे सारी उमर क़ैद रखा
कैसे कह दूँ मेरे दुश्मन दरो-दीवार न थे ।।

बदगुमानी कजअदाई बेनियाज़ी बरहमी
गोया तेरी हर नवाज़िश भूलता जाता हूं मैं ।

गिला ज़बां पे कई बार आ गया होता
अगर न सोचते हम भी उसे बुरा न लगे ।

हाले-दिल सुनके वो हँसा लेकिन
ये अदा आरिज़ी नहीं लगती ।
ज़िन्दगी पर यक़ीन कौन करे
ये किसी की सगी नहीं लगती ।।

ये राहगुज़र है किसे इनकार है इससे
इस राह से अब उसका गुज़र है कि नहीं है ।
मैं जिसके लिए खाना-ए-वीरान हुआ हूँ
इस बात की उसको भी ख़बर है कि नहीं है ।

ये रोने पे आया तो चुपाये न चुपेगा
दिल भी मेरा ज़िद्दी है किसी आबे-रवां सा ।

जवानी उम्र का सैलाब है जो कुछ नहीं सुनता
ये दीवाने की ज़िद है और सहरा उसकी मंज़िल है ।

अपनी गुदड़ी में छुपाये रहे अनमोल रतन
जौहरी ख़ूब थे हीरों के ख़रीदार न थे ।

अपने हाथ छोटे थे हम ये ख़ार चुन लाए
फूल-फल सभी कुछ था था बुलन्द शाख़ों में ।

दिल की जगह रक्खा हो पत्थर सर में भरी हो आतिशे-ज़र
उस महफ़िल में शेर सुनाकर मुफ़्त लहू गरमाना क्या ।

हर कोई संग उठाए था कि सर फोड़ना है
डर नहीं था कि वो पत्थर कहीं भगवान न हो ।

हम ख़ुद भी कमर बाँध के तैयार हैं क़ासिद
क्या होगी तेरे पास ख़बर इससे ज़ियादा ।

क्यूं मेरी ख़्वाहिश न हो हर सिम्त हो अम्नो-अमान
हो किसी की भी ख़ता सबकी सज़ा पाता हूँ मैं ।