आखर कदै नीं उखड़ै / वासु आचार्य
आखर-आखर‘ई हुवै
आखर कदै नींे उखडै़
हां कलम मांय
छूटै है झरझुरी घणी बार
जद लिखणौं पडै़
रगतबरणै तावड़ौ
लोवुलुलाण हुयै
सूरज सूं
परसरण लागै च्यांरूमैर
चुटंण लागै काळजो
उजास रा गाभा पै‘र र
बिलखतो दनुगो
गुटरगु की रामधुण
चिड़कल्यां रो कीरतन
गिरजां रै पंजा सूं
हुवै लौवुलुवाण
जइ लिखणौ पड़ै कलम नै
रात आळी चमचैड़ा
चीं चीं करै दिन मांय
अर उल्लुवां री हूं...हूं
हर घड़ी काना गूंजै
गड्डौ फसग्यौ गळै कोयल
मांय री मांय अमूजै
कागळा री कांव कांव
संगीत बण सै ठौड़ गूंजै
हर्यै भर्यै बगीचै मांय
बळबळती लूंवा चालै
देवता रै कटोरे मांय
मंगता मुट्ठी चावळ घालै
मांडती रै कलम
मांडती रै
झुरझुरीजै तो झुरझुरीजै
पण फंफैड़ीजै नीं
नीं लागै
भासा रै कार्या
नीं चालै कोई ‘कार’
उण्डा आखर दैवता रै
नूवौ कोई अकार
आखर-आखर‘ई हुवै
आखर कदै नीं ऊखड़ै