Last modified on 1 जून 2013, at 23:04

भैरवी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:04, 1 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ |संग्रह= }} {{KKCatKa...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आइ वातावरणमे अछि तप्त युग केर ताप,
भैरवी झंझाक गतिमे झरत जगतक पाप।
तार स्वप्नक टूटते जागरण भैरव गीत,
वर्तमानक चरण-घातें चूर्ण पतित अतीत।
कोनहु कोनहिमे मलिन अछि जकर क्षीणालोक,
जे न जगबय ज्वाल उर, ने हरय तिमिरक शोक।
क्षणिक दीपक मृŸिाकाक न आइ बचत इजोत,
भैरवी झंझाक झोंकक कतहु अछि न इरोत
आइ जन-जनमे न भ्रम हो कतहु मुक्ता-सीप,
द्वीप-द्वीपक तिमिरहारी उगओ गगनक दीप।
आइ केशव-ग्रीवमे नहि छजत गुआमाल,
सिन्धु मथि प्रस्तुत जखन अछि कौस्तुभक मणिमाल।
विद्युतक ई क्षणिक विलसित बन्द युग-युग हेतु,
महा पवनक वेग चालित भिन्न मेघक सेतु।
इन्द्रधनु नवरंग रंजित स्वयं लोपित क्षुद्र,
कैल ज्या योजित अपन पिनाक जखनहि रूद।
नहि पिपासित भूतलक हित लघु जलक ई कूप,
उमड़ि आएल गगन-तटमे जखन मेघ-स्तुप।
आइ नहि नूपुरक रूनझुन, वेण-वीणा-शब्द,
गगनमे गर्जल जखन गम्भीर स्वरमे अब्द।
कामिनि-यौवन न पार्थक रूचि-विलासक वस्तु,
पाशुपत पूजित जकर शुचि लक्ष्य तपसँ अस्तु।
घिचत कृष्णा-क्षीर दुःशासनक नहि से शक्ति,
चढ़ल कृष्णक अंगुलिक ब्रण-बद्ध वस्त्रक भक्ति।
स्वर्ण वन-उद्यान उजड़त मरूत-सुतहिक हाथ,
कनक-मृग छल हरल जे खल मैथिली दशमाथ।
नहि निश-पट तिमिर क्षालित नखत फेनक बिन्दु,
किरणमाली उदित होइछ पूर्ण राका-इन्दु।
मास मधु की लए मनाओत दग्ध उर-उद्यान,
विषुव-रेखा टपि उगल छथि भानु दिग् ईशान।
मेघमाला सजल झरते गलित नीरक गर्व,
देखु, गगनक फाँकसँ हँसि रहल शारद पर्व।
क्षीण आशावरी-स्वर जत भैरवी झंकार,
किन्तु नहि संहार ई, नव सृष्टिहिक उपहार।