भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऎसा आदमी था मैं / असद ज़ैदी
Kavita Kosh से
ऎसा आदमी था मैं कि हॊंठ नहीं थे
बोल नहीं सकता था जो सोचता था
कि अन्दर ही अन्दर ख़ुश रहता था
और चुपचाप रोता था
मैं जानता था कि होंठ नहीं थे मैंने प्यार किया
और सँभल-सँभल कर लिए फ़ैसले ठीक नहीं थे
फिर सोचा ठीक है यह भी
दहशत भरे दौर गुज़रे होंठ नहीं थे
जिन्हें जाना था उठकर जा चुके मैं बोला तक नहीं
मेरे रोंगटे अभी तक खड़े हैं ऎसी थी दारुण प्यास