भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी मैं जानूं / पारस अरोड़ा
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:48, 2 नवम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= पारस अरोड़ा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अचानक
थोथी हो गई
पांव तले की जमीन
पांव घुटनों तक
धंस गये जमीन में
आस-पास खड़े
लोगों को पुकारा,
आश्चर्य कि वे सारे
माटी की पुतलियों में तब्दील हो
माटी में धंस गये
शायद
किसी का अभिशाप फल गया उन्हें -
लाखों के लोग
कौड़ियों के हो गये।
मैं धरती के कांधे पर हाथ रख
आ गया बाहर
अब वे
गले तक धंसे हुए लोग
बुला रहे हैं मुझे।
मेरे दो हाथों में से
एक मेरा है
दूसरा सौंप रहा हूं उन्हें
यह जानते हुए
कि बाहर आकर वे
यही हाथ
काटने लगेंगे
पर उनकी वे जानें
मेरी मैं जानूं !
अनुवादक - नंद भारद्वाज