भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इखनी नै तेॅ कखनी / वसुंधरा कुमारी
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:44, 13 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= वसुंधरा कुमारी |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ई हवा कैठां सेॅ आवै छै
जेकरोॅ रोइयाँ-रोइयाँ मेॅ आग छै
जेकरोॅ सांसोॅ मेॅ आँधी-विन्डोबोॅ
जेकरोॅ आँखी मेॅ अन्हरिया रात छै
हर डेगोॅ में भूकम्प।
ई हवा कैठां सेॅ आवै छै
कि हमरोॅ सदिष्ष्ष्ष्यो सेॅ खड़ा
पहाड़ो सेॅ मजवूत आश्रम
हिलेॅ-डुलेॅ लागलोॅ छै
कहीं उड़ाय नै लै जाय एकरा
सात समुन्दर पार ।
आवोॅ, हमरासिनी एक्के साथ
एक दूसरा के हाथ पकड़ने
बाँधी लौं एकरा
हाथोॅ सें हाथ मिलैने
देखै छौ
आग आरो बढ़ले जाय छै
बिन्डोबोॅ चढ़ले जाय छै
ई भूकम्प सेॅ तेॅ
आश्रम के नींव उखड़ले जाय छै ।