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गाँवोॅ के हवा / अचल भारती
Kavita Kosh से
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घन्नोॅ धुंध छै
आरू स्मृति रोॅ संझौती झुरमुट
लोरैलोॅ नजर खोजै छै
गाँव, बचपन, गलबाँही
ऊ पातरोॅ रं नदी
जै में हमरी माय के आँचल
खिलखिल करै
कनियाँ नाँखी घोघोॅ रोॅ बीचोॅ सें
झाँकतेॅ ओकरोॅ गोल-गोल चेहरा
लोर, तेज, ममता आरू झिड़की में
बनौटीपन नै छेलै
मजकि बेबसी में
नागफनी रं लागै कांछा ।
चैखटी पर राखलोॅ दीया में
जबेॅ-जबेॅ वैं झाँकै
दिखै ओकरोॅ झुर्री
थकचुरुओॅ, मायूस आरो उदास नजर
जेकरोॅ मानी
कोय्यो मानी नै छेलै ।