भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टुटियोनि जाय / उचित लाल सिंह

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:13, 22 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उचित लाल सिंह |अनुवादक= }} {{KKCatAngikaRachna}} <p...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उगलै लत्तर में कानी, लागलै पत्तर में पानी,
हवा में मारै पेंगµअरे, काँही टुटियोनि जाय ।

मुस्कै छै अनजाने मंद, गलबांही देनें छै गंध,
टेबोॅ में रौदा के लू, अरे, काँही लुटियोनि जाय ।

उमगै कोयलिया के कूक, हिरदय में टहकारै हूक,
शब्दोॅ के बाढ़ोॅ में लीक, अरे काँही भाँसियोनि जाय ।

धुरदा पर धुरदा पंथी अजुरदा
सीसा रं चेहरा काँहीं उतरियोनि जाय ।

आस लगैनें होतै मैया, बुतरू छै भारी खेलबैया,
बेर भेॅ गेलै खेलतें-खेलतें अरे, काँही भागियोनि जाय ।