रविवार का दिन,
कसाईख़ाने से निकलकर
ताज़ा ख़ून की सोत
रास्ते से हो
किनारे के नाले तक बहती है ;
रास्ते से आने-जाने वाले जल्दी में हैं, तो उन्हें
ख़ून की सोत वह नहीं दीखती ;
कुछ आवारा कुत्ते, पूँछें उठाए
चाट रहे हैं बहते ख़ून को ।
आने-जाने वालों के चेहरे
कंकाल-मुख ;
आराम फ़रमाती एकाध गौरैया
फ़ोनलाइन पर बैठी,
जिससे होकर गुज़रती है
शवगृह से उठ आए उस आदमी की चीख़।
उस दिन रविवार था,
बाज़ार संतरे की नई फ़सल से अटा पड़ा था;
और उसके उठने तक
नया एक रविवार शुरू हो गया।
नीलमणि फूकन की कविता : पलस (পলস) का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित