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वन्दना / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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वन्दना

मा! मुझे तुम लोक मंगल साधना का दान दो,
शब्द को संबल बनाकर नील नभ सा मान दो।

नित करूं पूजन तुम्हारा
प्राण में यह भावना दो,
तिमिर दंशित मन गगन को
ज्योति की संभावना दो,

भक्ति श्रद्धा के सुमन ले द्वार है मेरा नमन,
लेखनी को व्यास दे निज नेह का सम्मान दो।

भाव मंडित गीत हों, नव
शिल्प का पारस परस कर,
अर्थबल से युक्त हो हर
शब्द अपने को सरस कर,

कल्पनाओं से भरी नव मंजु मुख लय तान दे,
हो भरे जिसमें करूण स्वर वह मुझे नवगान दो।

रच सकूं वे गीत जिनमें ,
हो व्यथा सारे भुवन की ,
गोमुखी हो बह चले ,
मंदाकिनी अंतःकरण की,

वेदना संवेदना अभिव्यक्ति का संकल्प दे,
हो उजाले की किरण जिस ज्ञान में , वह ज्ञान दो।