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बंदर का नाच / मोहन राणा
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मैं मदारी हूँ बंदर भी एक साथ सच एक ही मुखौटे में दो चेहरे हैं छायाओं को मिटा दो थोड़ा और पास आ के देखो दोपहर के निर्जन अंतराल में तमाशे की डुगडुगी गलियों में मंडराती, करता हूँ मैं प्रतीक्षा खिड़कियों के खुलने की दरवाजों के बंद होने की हवा के थमने की, किसी के बोल पड़ने की उछलते कूदते अपनी रस्सी को पकड़े टोपी को उछालते
अंधेरी सुरंग में नींद लंबी कि रात का सफर कुछ नहीं बस ठोस खंबों से टकराता समय
मनुष्यों का मरना बंद हो गया जैसे एकाएक धरती अपने धुरी पर ठहरी सी और मैं कानों पे हाथ लगाए चकित अपनी अमरता पर और यह दर्पण तो नश्वरता है, अरे यह तो मैं गोल गोल घूमता बंदर और मदारी भी
1.6.2000