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खण्ड-4 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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‘‘रुको-रुको अमरेन्द्र अभी अवसाद तुम्हें दहलाए
इसीलिए तो खुला हुआ दिन भी तम-सा दिखलाए
भूल गये भार्या की सेवा, जीवन का आह्नलाद
मुक्त करों से ग्रहण कर रहे हो केवल अवसाद
रहे मुक्त ही मुक्त हमेशा, दुख को कब है झेला
भार पड़ा है जो भी तुम पर वह तो बुझो अधेला
सच-सच बोलो, कब तुमने मन कभी लगाया घर में
अपनी आदत के कारण ही बरबस रहे अधर में
कभी किसी ने चाहा हित, तो अहंकार में फूले
कविता के सौरभ-वन में ही रहे भटकते, भूले
कुछ पैसा जो आया, उसको उसी काव्य में झोका
दौड़ रहे थे, हाँफ रहे थे; कब अपने को रोका
चाहा था क्या नहीं पिता ने, शिक्षक तुम्हें बनाया
लेकिन तुम पर बड़े भूत की खड़ी हुई थी छाया
औघड़ के संग मन लगता था, घर में तुम क्या जमते
अच्छा होता योगी-सा ही यहाँ-वहाँ तुम रमते
जब श्मशान सुहाता ही था, क्यों लौटे तुम घर को
पूछो अपने मन से ही क्या छिपा सकोगे डर को
औघड़ जैसा खान-पान सब, क्रिया-कर्म सब वैसे
धर्म मुताबिक कहाँ चले तुम, चले व्रात्य की लय से

‘‘पत्नी के साहस पर ही तो जीवन स्वर्ग बना था
जिसके आगे-पीछे केवल संकट घोर घना था
उठा लिया था विपदाओं के पर्वत को अंगुली पर
बरस रहा था क्रूर काल शक्ति भर, एक कली पर
तब भी साथ तुम्हारा उसको कहाँ मिला था, बोलो
यह भी नहीं कहूंगा तुमसे जो प्रच्छन्न है, खोलो
स्वामी थे, लेकिन स्वामी की कुछ भी रीति नहीं थी
साथ-साथ तो रहे हमेशा लेकिन प्रीति नहीं थी
दुख का साथी क्या होता है, उसने है कब जाना
तुमने हर अवसर पर, केवल अपने को पहचाना ।’’

‘‘रुको, बहुत तुम बोल चुके, अब मैं भी क्या कुछ बोलूँ
हाय, मुझे तो इतना भी अधिकार नहीं कि रो लूँ
इतना ही बोलूंगा, इससे पिता हुए तो खुश थे
लेकिन मेरे दिन काँटों के क्या सचमुच में ‘कुश’ थे
सागर पर छोटी-सी नौका, नाविक नया नवेला
आशाएँ, उम्मीद सभी कुछ; घन में चाँद अकेला
सन्नाटे का शोर लहर पर चढ़ कर बोल रहा था
सब कुछ डूब रहा था मेरा जो अनमोल रहा था ।’’
‘‘रुको, रुको, फिर से तो बोलो, क्या अनमोल तुम्हारा
द्वार-द्वार पर ढूँढ़ रहे थे जीवन का सुख सारा
कुछ भी हाथ नहीं लगता था ऐसा तो वह श्रम था
भाग्य उसी पथ से आयेगा, यह तो तेरा भ्रम था

‘‘तट को छोड़, बीच की लहरें छूना चाह रहे थे
तुम्हें कहाँ था पता कि आखिर किसको थाह रहे थे
लहरें तो लहरें होती हैं छू कर के बह जातीं
किसी कूल के संग रहे, पर रिश्ता नहीं निभातीं
जब तुमने यह जाना, तो जा तट पर खड़े हुए हो
सच कहता हूँ, इसीलिए तुम इतने बड़े हुए हो ।’’

‘‘सच है तट पर ही जीवन का आश्रय हो सकता है
लहरों पर आ कर भी कोई कहाँ वहाँ रुकता है
तट पर ही पाता है वह विश्राम स्वर्ग का, सुख का
रेत बना उड़ता रहता है पर्वत फैला, दुख का
पर लहरों के आकर्षण से मन है कहाँ अघाता
एक बार मुड़ कर क्या देखा लौट वहीं फिर जाता
नहीं जानता लहरों में जीवन या मृत्यु छिपी है
मणिघर की दीवालों पर कालिख की परत बिछी है
चांदी की चंचल चादर है; सोए, गए रसातल
शांत लहर के नीचे बढ़वानल है, जल-तल खलखल
कहाँ पुरुष में इतना बल है, सब अनुकूल बनाए
परमाणु संयुक्त जगत को छू कर धूल बनाए
जो होता, सब स्वयं ही होता, जो होगा स्वयं होगा
नहीं जानता पुरुष, प्रकृति का खेल कहाँ सम होगा
जब तक पुरुष प्रकृति-छटा में लीन बहा करता है
तब तक ही है सलिल, आग या पवन बहा करता है
और पुरुष तो द्रष्टा-सा ही देख-देख पुलकित है
किसी प्रलय या बाधाओं के भय से कहाँ ग्रमित है
नर को होता बोध अवश है, निर्बल और पराश्रित
नारी जब लहरें समेटती नर से होकर लज्जित
कहीं पुरुष, तो कहीं नारी है कुछ संयोग नहीं है
तब लगता है जीव-जगत यह केवल भोग नहीं है
कंचन की बल्लरियों की आभा की शीतल छाया
घोर तमस में पूनम की रजनी की कोमल माया
पुरुष अलग, तो अलग प्रकृति है, नीरवता ही प्रहरी
कापालिक-सा काल घूमता, नींद मृत्यु-सी गहरी ।’’

‘‘रुको, तुम्हें है घेर रहा अवसाद, विकल है चित्त
इसीलिए मन पर छायी है छाया यह अतिरिक्त
मन बांधो ! संकल्प करो ! कुछ सिरजो नया अनूप
वे जो बांध रहे हैं तुमको, नहीं रहेंगे रूप
नये सत्य की अनुभूति से मन होगा निष्काम
नये भोर को ले उतरेगी उतर रही जो शाम ।’’