भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बम्बई-2 / विजय कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:32, 19 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय कुमार |संग्रह=चाहे जिस शक्ल से / विजय कुमार }} बाहर ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाहर तब रात थी

हमने पाँव

घुटनों तक समेट लिए थे


पूरी रात हमने देखा

ख़ाली जगहों पर इमारतें खड़ी हो रही थीं

पूरी रात

लाचार समुद्र

शहर से कुछ और दूर खिसक रहा था

पूरी रात

पिता बग़ल में पोटली दबाए

शहर में पता ढूंढते फिर रहे थे

पूरी रात

क्षितिज पर इंजन गरज रहे थे


काग़ज़ों के ढेर पर ढेर

लगते गए इमारतों से भी ऊँचे

घने कोहरे में

चीखें और आत्महत्याएँ थीं

पूरी रात

हवाएँ लाती रहीं अपने साथ

जलते हुए रबड़ की दुर्गन्ध


आकाश

यह कैसा आकाश था