भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपने जैसा लगता है / विजय वाते

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:09, 26 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते }} वो तो सुबह से स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो तो सुबह से सपने जैसा लगता है| पहला प्यार हमेशा सच्चा लगता है|

जैसे पीले पत्ते झरते आँगन में, वैसे वो भी उखड़ा-उखड़ा लगता है|

नाच दिखाने तौल रहा जो पर अपने, मोर कहीं वो रोया-रोया लगता है|

उसकी बातें और करो कुछ और कहो, उसके किस्से सुनना अछ्छा लगता है|

इश्क, अदावत, खुशबू, पीड़ा,हँसी, छुअन, बे चहरों के चहरे जैसा लगता है|

दिल वाले महसूस करेंगे इसे "विजय", शेर ग़ज़ल का दिल का हिस्सा लगता है|