भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
म्हैं सोचूं / वाज़िद हसन काज़ी
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:49, 27 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वाज़िद हसन काज़ी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सोचंू
अेक घर बणावूं
जिण मांय हुवै
थोड़ा'क बिळ
थोड़ा'क घौंसला
थोड़ी'क बोदी जमीन
अर रैवूं आपरै
बैळियां सागै
कीं कीड़्यां, मकोड़ा
कीं पांख, पंखैरू
अेक बिरछ
अर म्हैं
पण नीं हुवै उणमैं
सांप-बिच्छू
चील-गिरजड़ा
अर कांटा आळा
थूर
राजनीति रा।