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कुमार मुकुल

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वॉन गॉग की उर्सुला - कुमार मुकुल

क्‍या हर प्‍यार करने वाले से शादी करनी होगी मुझे पूछती है - उर्सुला और भाग खड़ी होती है विन्‍सेंट को पुकारती लाल सिर वाला बेवकूफ

सुबहें होती आई हैं शबनम से नम और आग से भरी हुईं हमेशा से और शामें उदास-खूबसूरत

गुलाम हो चुकी भाषा के व्‍याकरण को अपनी बेहिसाब जिरहों से लाजवाब करता मिटटी की परतें तोड़ फेंकता अंकुर आजाद कि खब्‍तख्‍याली के टकटकी बांधता,खिलखिलाता,भागता बदहवास बिखरती लटें संवारता, चुंबनों से दुपट्टों से पसीना पोंछता आता है प्‍यार - चूजे सा पर तोलता भरता आशंकाओं से कि उसकी रक्षा या हत्‍या को आतुर हो उठते हम कि बाज-बखत खड़ी करनी चाहते दीवार उसे बचाने की दुनियावी जद्दो-जहद से इससे गाफिल कि वह खुद एक बुलन्‍द निगाह है - दरो-दीवार को भेदती - फिर अन्‍तत: चूककर दुहराते हैं हम - प्‍यार और दुश्‍वार करते हैं जीना और टूटता है एक सपना नींद में जागे का।

हर विंसेंट की एक उर्सुला होती है उसे दीवाना-मूंहफट-सिरफिरा कह उसके मुंह पर किवाड़ भेड़ती और होता है वह एक विन्‍सेंट ही ख्‍याल को सनम समझता खुद को ख्‍याल से भी कम समझता प्रतीज्ञाएं करता-तोडता महान मूर्खताओं से चिढता-चिढाता उन्‍हें मुंह भटकाता खुद को दर-ब-दर

रहने और खाने की व्‍यवस्‍था पर अध्‍यापक मिल जाते हैं हमेशा से और आज भी फिर क्‍या चाहिए था विन्‍सेंट को याद करने के पैसे तो नहीं लगते

यादें तो बस जीवन मांगती हैं एक निगाह में एक बैठती आह में बिखरता जीवन।

इजाडोरा कहती है - प्रेम शरीर की नहीं आत्‍मा की बीमारी है यह ज्‍वर जला डालता है सारे कलुष प्रेमी बन जाते हैं योद्धा-पादरी-शिक्षक यह ज्‍वर भर जाता है आंखों में चमक भाषा में खुनक फिर तमाम विन्‍सेंटों के भीतर उनकी उर्सुलाएं जाग पड़ती हैं बोलने लगते हैं वो महान प्रार्थनाएं-प्रयाण गीत-पाठ

दुनिया के क्रूरतम तानाशाह भी अपने भीतर समेटते रहते हैं एक बिखरती उर्सुला

कभी-कभी ज्‍वर टूटता है तब तक देर हो चुकी होती है सच्‍ची जिदें बदल चुकी हेाती हैं झूटी सनकों में

उर्सुला केा बचाने की जिद में वो मार चुके हेाते हैं अपने अंदर की उर्सुला को ही

जीवनानंद में नाचती नीली आंखों का प्रकाश थी उर्सुला विन्‍सेंट के लिए उन कुछेक शामों-सुबहों की तरह जो होते-बीतते बैठ जाती हैं चुपके से भीतर फिर जब दुनिया का मायावी प्रकाश चौंधियाता है हमें तो खो जाते हैं हम कहीं भीतर दुबके प्रकाश-पल की तलाश में टिमटिमाता रहता है जो-अविच्छिन्‍न एक टीस की तरह कि उन प्रकाश पलों को फिर-फिर बदला नहीं जा सकता सुबहों व शामों के प्रकाश-वृत्‍तों में

विन्‍सेंट याद करता है-ईसा को कि-हरेक चीज मिल जाती है किसी भी किताब से ज्‍यादा सम्‍पूर्ण और सुन्‍दर रूप में

कि कोर्इ भी दुख बिना उम्‍मीद के नहीं आता

हां सचमुच की उर्सुला जब खो जाती है कहीं जिन्‍दगी की किताब में तब जीवित होने लगती है वह विन्‍सेंट के लहू में- निगाह में उसकी उसके इशारों में- फिर-फिर रची जा रही होती है वह कैनवसों पर मिथ्‍या आवरणेां के भीतर अपने मूल से भी खरे रूप में।