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सभ्यता का ज़हर / विष्णुचन्द्र शर्मा

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सुबह की

भाषा में

कोई प्रदूषण नहीं है


सुबह की

हवा

पेड़ों को

बजा रही है


सुबह की

भाषा में

ताज़े पेड़

पहाड़ों से

तराना

सीख रहे हैं


सुबह यहां

कोकाकोला की

भाषा में

ज़हर नहीं आया है


सभ्यता की मरी

हुई भाषा का फिर भी

ज़हर

फ़ैल रहा है

दिल में

दिमाग में ।