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चाटुकर /कालिदास शर्मा

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झलमल मुख-चन्द्र चाँदनीको
अघितिर ‌आफनु कान्ति जानि फीको ।
मुखबिच मलिनू कलेटि पारी
राशि छन ई अब भागनै तयारी ।।१।।

कमल-दलसमान साफ गाला
शशिमुखि लाल गुलास रङ्ग-वाला ।
रतिपति अतिथीजीका इप्याला
कि त उनकै हुन चकिदार भाला ।।२।।

मुख पनि मन-भावनी बनाई
मृदुपदके गति सारिले छिपाई ।
मधुर मुखर पाउजेप लाई
स्वर सुरिलो गरि रङ्गमा चलाई ।।३।।

नगर अब विलम्ब जल्दि आऊ
म छु बिचरो अपराध माफ पाऊँ ।
यसरि त निठुरी नहौ पियारी !
रतिपति प्राण लिनै छ ये तयारी ।।४।।

नयन-शर तिखा विषालु छानी
भृकुटी-धनू खिचि कानसम्म तानी ।
रिसरित मकनै गरी निसान
बरु अब लौन पियारि ! जल्दि हान ।।५।।

मधुमय पतला ति लाल ‌ओठ
भुलिकन हाय ! लिई ठूटो चुरोट ।
दिन दिन घुमने भये डुलाहा
तर तिमरै न म हूँ प्रिये ! दुलाहा ।।६।।

अमृतसरि मिठा मिठा अपार
प्रियतमका सुनि हद्य चाटुकार ।
हजुर सच रहेस यो करार
भनि मुसुकाइ समालि केशभार ।।७।।

तिलहरि कुच बीचमा डटेर
मन हरिलीन भनी अघी सरेर ।
अरक भरि भरी लई गिलास
प्रियकन चट्ट दिई बसीन पास ।।८।।



(*सूक्तिसिन्धु (फेरि), जगदम्बा प्रकाशन, २०२४)