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जुगिनी रानी / कल्पना 'मनोरमा'
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रात ने जब-जब पुकारा
थे कहाँ तुम
भोर में दीपक जलाने से
मिला क्या ?
जब किनारे पर गले
प्यासे फँसे थे
मन मुताविक तंज कस
धारे हँसे थे
शुष्क होंठों ने पुकारा
थे कहाँ तुम
भीगने पर जल पिलाने से
मिला क्या ?
चैन की आगोश में भी
रतजगे थे
स्वप्न नगरी में घने
पहरे लगे थे
नींद ने जब भी पुकारा
थे कहाँ तुम
सो गए उनको सुलाने से
मिला क्या ?
भोग छप्पन थे मगर
ताले जड़े थे
कौन किसको पूछता
सब ही बड़े थे
भूख ने जब-जब पुकारा
थे कहाँ तुम
खा चुके उनको खिलाने से
मिला क्या ?