भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम गंगाजल हो गयी / सुरेश चंद्रा

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:32, 19 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश चंद्रा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने लिखी क्लिष्ठ हिंदी में
कठिन प्रेम कविताएँ,
मेरी जानिब ख़ालिस उर्दू की,
'तुम' नफ़ासत भरी 'ग़ज़ल' हो गयी

थक कर सिमट गया मुझमे
पोर-पोर दुखता मटमैला दिन,
सुख सा निखरी-बिखरी मुझमे
'तुम' गमकती 'संदल' हो गयी

साँझ ढल कर कंटीली हुई
मैं खुरदुरा घवाहिल ढहा
फाहा-फाहा, रोआं-रोआं
'तुम' मेरा 'मलमल' हो गयी

मैं उभरा जब भी, पश्ताचाप संताप भाप सा
'तुम' उतरी मेरी आँखों में, 'गंगाजल' हो गयी !!