भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लड़ते हुए सिपाही का गीत / ब्रजमोहन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लड़ते हुए सिपाही का गीत बनो रे
हारना है मौत, तुम जीत बनो रे

फूलों से खिलना सीखो, पंछी से उड़ना
पेड़ों की छाँव बनके धरती से जुड़ना
पर्वत से सीखो, कैसे चोटी पर चढ़ना
गेहूँ के दानों-सी प्रीत बनो रे

जब बैठे-बैठे आँखें भर आएँ दुख से
फिर सोचना, दिन कैसे बीतेंगे सुख से
दुख की लकीरें मिट जाएँगी मुख से
सूरज-सा उगने की रीत बनो रे

माथे पर छलके भाई! जब भी पसीना
इक पल हवाओं के भी होठों पर जीना
तब देखना रे ! कैसे फूलेगा सीना
सीने में धड़के जो, संगीत बनो रे