भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 7

Kavita Kosh से
अभिलाष पुरोहित (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:58, 25 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रति सक्सेना }} तुच्छ है राज्य क्या है केशव? पाता क्या नर...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुच्छ है राज्य क्या है केशव? पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?

चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास, कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,

पर वह भी यहीं गवाना है,

कुछ साथ नही ले जाना है.


मुझसे मनुष्य जो होते हैं, कंचन का भार न ढोते हैं,

पाते हैं धन बिखराने को, लाते हैं रतन लुटाने को,

जग से न कभी कुछ लेते हैं,

दान ही हृदय का देते हैं.


प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर,

महलों में गरुड़ ना होता है, कंचन पर कभी न सोता है.

रहता वह कहीं पहाड़ों में,

शैलों की फटी दरारों में.


होकर सुख-समृद्धि के अधीन, मानव होता निज तप क्षीण,

सत्ता किरीट मणिमय आसन, करते मनुष्य का तेज हरण.

नर विभव हेतु लालचाता है,

पर वही मनुज को खाता है.


चाँदनी पुष्प-छाया मे पल, नर भले बने सुमधुर कोमल,

पर अमृत क्लेश का पिए बिना, आताप अंधड़ में जिए बिना,

वह पुरुष नही कहला सकता,

विघ्नों को नही हिला सकता.


उड़ते जो झंझावतों में, पीते सो वारी प्रपातो में,

सारा आकाश अयन जिनका, विषधर भुजंग भोजन जिनका,

वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,

ध्र्ती का हृदय जुड़ाते हैं.


मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज, सिर पर ना चाहिए मुझे ताज.

दुर्योधन पर है विपद घोर, सकता न किसी विधि उसे छोड़,

रण-खेत पाटना है मुझको,

अहिपाश काटना है मुझको.