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ओ घन श्याम ! / ज्योत्स्ना शर्मा
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ओ घन श्याम ! मुदित अभिराम सजल हुए धरा पर बरसे और कभी यूँ मिलने को तरसे । कौन सिखाता सारी तुम्हें ठिठोली ? सखी तुम्हारी पुरवाई क्या बोली ? भटकाती है संग तुमको लेके भला कहो तो कित- कित है जाती ज़रा तो जानो । कण -कण व्याकुल तुम्हारे बिना तुम न पहचानो । और कभी ये मुक्त भाव से भला कौन संदेसा नदिया से कहते ? उमड़ी जाती वो बहते -बहते सखा हमारे हमें न भरमाओ अब मान भी जाओ ...!!