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आज ये मन / कविता भट्ट

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एक माँ की विपदा कहे कैसे पत्थर करुण
जिसने अपने खो दिये दो लाल तरुण

एक लाल सीमा पर शहीद हो गया
तो दूजा आतंक की बलि चढ़ गया

बेटी को हर लिया दहेज दानव ने
अत्याचारी क्रूरता के आततायी तांडव ने

घर छीन लिया भ्रष्टाचारी नौकरशाहों ने
मेरे खेतों को हड़पा क्रूर अभिकर्ताओं ने

विलाप करते सहस्रों थे स्वप्नों के पाश
पर न रहा पाषाण-प्रभु तुम पर विश्वास

अब तो काम की भी उम्र ना रही
भिक्षा मांगने में भी लाज आ रही

तो फिर कह दो मैं क्या कर लूँ
कहो तो अपने प्राण स्वयं ही हर लूँ

अब तो विष भी है महँगा पर
और है मेरी पहुँच से बाहर
 
मन में है बड़ा ही आक्रोश
नहीं होता सब्र ना ही सन्तोष

तो फिर कह दे कैसे प्राणों का त्याग करूँ
ओ पत्थर कुछ तो कह दे, कब देखूँगी मैं

तुझ सोए हुए ‘पत्थर के आँसू’