भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
संध्या सिंदूर लुटाती है / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:52, 16 जुलाई 2008 का अवतरण
संध्या सिंदूर लुटाती है!
रंगती स्वर्णिम रज से सुदंर
निज नीड़-अधीर खगों के पर,
तरुओं की डाली-डाली में कंचन के पात लगाती है!
संध्या सिंदूर लुटाती है!
करती सरिता का जल पीला,
जो था पल भर पहले नीला,
नावों के पालों को सोने की चादर-सा चमकाती है!
संध्या सिंदूर लुटाती है!
उपहार हमें भी मिलता है,
श्रृंगार हमें भी मिलता है,
आँसू की बूंद कपोलों पर शोणित की-सी बन जाती है!
संध्या सिंदूर लुटाती है!