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बंगाल का काल / हरिवंशराय बच्चन

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पड़ गया बंगाल में काल,

भरी कंगालों से धरती,

भरी कंकालों से धरती!


क्‍या कहा?

कहाँ पड़ गया काल,

कहाँ कंगाल,

कहाँ कंकाल,

क्‍या कहा, कालत्रस्‍त बंगाल!


वही बंगाल-

जिस पर सजल घनों की

छाया में लह-लह लहराते

खेत धान के दूर-दूर तक,

जहाँ कहीं भी गति नयनों की।


जिस पर फैले नदी-सरोवर,

नद-नाले वर,

निर्मल निर्झर

सिंचित करते वसुंधरा का

आँगन उर्वर।

जिसमें उगते-बढ़ते तरुवर,

लदे दलों से,

फँदे फलों से,

सजे कली-कली कुसुमों से सुन्‍दर।


वहीं बंगाल-

देख जिसे पुलकित नेत्रों से

भरे कंठ से,

गद्गद् स्‍वर से

कवि ने गया राष्‍ट्र गान वह-

वन्‍दे मातरम्,

सुजलम्, सुफलम्, मलयज शीतलम्,

शस्‍य श्‍यमलाम्, मातरम्।...


वहीं बंगाल-

जिसकी एक साँस ने भर दी

मेरे देश में जान,

आत्‍म सम्‍मान,

आजादी की आन,

आज,

काल की गति भी कैसी, हाय,

स्‍वयं असहाय,

स्‍वयं निरुपाय,

स्‍वयं निष्‍प्राण,

मृत्‍यु के भुख से होकर ग्रस,

गिन रहा है जीवन की साँस-साँस।


हे कवि, तेरे अमर गान की

सुजला, सुफला,

मलय गंधिता

शस्‍य श्‍यामला,

फुल्‍ल कुसुमिता,

द्रुम सुसज्जिता,

चिर सुहासिनी,

मधुर भाषिणी,

धरणी भरणी,

जगत वन्दिता

बंग भूमी अब नहीं रही वह!बंग भूमी अब

शस्‍य हीन है,

दीन क्षीण है,

चिर मलीन है,

भरणी आज हो गई है हरणी;

जल दे, फल दे और अन्‍न दे

जो करती थी जीव दान,

मरघट-सा अब रुप बनाकर

अजगर-सा अब मुँह फैलाकर

खा लेती अपनी संतान!


बोल बंग की वीर मेदिनी,

अब वह तेरी आग कहाँ है,

आज़ादी का राग कहाँ है,

लगन कहाँ है, लाग कहाँ है!


बोल बंग के वीर मेदिनी,

अब तेरे सिरताज कहाँ हैं,

अब तेरे जाँबाज़ कहाँ हैं,

अब तेरी आवाज़ कहाँ हैं!


बंकिम ने गर्वोन्‍नत ग्रीवा

उठा विश्‍व से

था यह पूछा,

'के बले मा, तुमि अबले?'


मैं कहता हूँ,

तू अबला है।

तू होती, मा,

अगर न निर्बल,

अगर न दुर्बल,

तो तेरे यह लक्-लक्ष सुत

वंचित रहकर उसी अन्‍न से,

उसी धान्‍य से

जिस पर है अधिकार इन्‍हीं का,

क्‍यों कि इन्‍होंने अपने श्रम से

जोता, बोया,

इसे उगाया,

सींच स्‍वेद से

इसे बढ़ाया,

काटा, मारा, ढोया,

भूख-भूख कर,

सूख-सूखकर,

पंजर-पंजर,

गिर धरती पर,

यों न तोड़ देते अपना दम

और नपुंसक मृत्‍यु न मरते।

भूखे बंग देश के वासी!


छाई है मुरदनी मुखों पर,

आँखों में है धँसी उदासी;

विपद् ग्रस्‍त हो,

क्षुधा त्रस्‍त हो,

चारों ओर भटके फिरते,

लस्‍त-पस्‍त हो

ऊपर को तुम हाथ उठाते।


मुझसे सुन लो,

नहीं स्‍वर्ग से अन्‍न गिरेगा,

नहीं गिरेगी नभ से रोटी;

किन्‍तु समझ लो,

इस दुनिया की प्रति रोटी में,

इस दुनिया के हर दाने में,

एक तुम्‍हारा भाग लगा है,

एक तुम्‍हारा निश्चित हिस्‍सा,

उसे बँटाने,

उसको लेने,

उसे छिनने,

औ' अपनाने,

को जो कुछ भी तुम करते हो,

सब कुछ जायज,

सब कुछ रायज।


शेष भाग जल्‍द ही प्रकाशित कर दिए जाएँगे।