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भावदूत / राम शरण शर्मा 'मुंशी'
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खिलते हैं फूल
गमकती है महक
धरा से क्षितिज तक ...
कितने हाथ
विविध वर्ण
ऊपर को उठते
थरथराते हैं... !
निहारते हैं
सतत
गतिशील ज्योतिपुँज
रवि-रथ को
अपलक ...
गन्ध-पूत
अनगिनत
भाव-दूत
ऋतुमती धरित्री के
नभ तक
सरसराते हैं !