भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहे-1 / दरवेश भारती

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:24, 7 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दरवेश भारती |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस अद्भुत संसार में, कर जितने उपकार।
पायेगा अपकार ही, उतने बारम्बार।।

वह घर स्वर्ग-समान है,जहाँ नहीं है क्लेश।
पुजते हैं माता-पिता, जैसे हों देवेश।।

काम बिगड़ता देखकर, ख़ूब जताया रोष।
आत्मनिरीक्षण जब किया, पाया ख़ुद में दोष।।

घर-घर रावण बस रहे, राम करें वनवास।
स्नेह,दया,सुख,प्रेम की, किससे हो अब आस।।

हर नगरी, हर गाँव में, पनप रहे अवतार।
खेतों में जैसे उगें, नाहक़ खर, पतवार।।

कौन किसी का है सखा, कौन किसी का मीत।
अर्थ-तन्त्र में अर्थ से, देखी सबकी प्रीत।।

मिले उन्हें अक्षय विजय, जो हों नम्र, विनीत।
दम्भी दुर्योधन-सरिस, कभी न पाते जीत।।

कौन किसी का शत्रु है, कौन किसी का मित्र।
हुए उसी के संग सब, जिसका साधु चरित्र।।

वर्षों जीवन जी लिया, आज हुआ महसूस।
काम न कोई बन सके, बिन परिचय, बिन घूस।।