आज अचानक / तारादेवी पांडेय
जो कह न सकूँ मैं तुमसे, उसको चित्रित कर दोगे?
ओ चित्रकार क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
चिर वियोगिनी है आती, पथ पर मोती बरसाती।
तारों के दीप जलाती, कुछ रोती कुछ-कुछ गाती॥
उसके भीगे गालों को, तुम भी क्या देख सकोगे?
ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
निर्जनता होवे मग में, बाला हो अस्थिर चंचल।
हो तेज़ हृदय की धड़कन, हिलता हो जिससे अंचल॥
करुणा की उस चितवन को, पद पर अंकित कर दोगे?
ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
तारों की ज्योति मलिन हो, प्राचाी नभ उज्ज्वल तर हो।
ऊषा सिन्दूर लगाती हो प्रात मधुर सुखकर हो॥
इस शान्त दृश्य को पावन, कैसे बन्दी कर लोगे?
ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
भोले-भाले से आँसू, तारों की होड़ लगाते।
अपनी उस उज्ज्वलता का, भी दर्शन करवा जाते॥
उसके रहस्यमय जीवन का, भेद मुझे कह दोगे?
फिर बहुत दूर पर धँधली-सी, छाया एक दिखाना।
वे प्रिय आते ही होंगे, ऐसा कुछ भाव बनाना॥
उन बड़ी-बड़ी आँखों से, आँसू भी ढलका दोगे?
ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?
बस अन्तिम दृश्य बनाना, दोनों का मिलन दिखाना।
उनकी मीठी सिसकी से, तुम कभी सिसक मत जाना॥
क्या सचमुच ऐसा सुन्दर, वह चित्र पूर्ण कर दोगे?
ओ चित्रकार, क्या मुझको, ऐसी छवि दिखला दोगे?