भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सजनियाँ की होतइ / उमेश बहादुरपुरी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:25, 11 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमेश बहादुरपुरी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बहऽ हे सावन में गरम बयार सजनियाँ की होतइ।
फटल खेतवा में बड़का दरार रोपनियाँ की होतइ।।
ऐसन गरमी देख-देख के जेठ-बइसाख लजा हे।
देलन बिधाता जाने कइसन कउन जनम के सजा हे।
रोबऽ हे अँखिया जार-बेजार सजनियाँ की होतइ।। फटल ....
दूर-दूर तक हमरा कहयँ पानी नजर न´् आबऽ हे।
आँख-मिचौली खेलते बदरा मनमाँ के ललचाबऽ हे।
काहे मौसम हो गेलइ बीमार सजनियाँ की होतइ।। फटल ....
दुलहिन जइसन खेत सजऽ हल हर बरीस सावन में।
मन-मयूरा नाचऽ हलइ हर बरीस सावन में।
बरसऽ हल दिन-रात रिमझिम फुहार सजनियाँ की होतइ।। फटल ....
कूक सुनऽ ही कोयल के न´् नाचे मोर पहिन पइजनियाँ।
कइसे गइतै हाँथ जोड़के झूमर अब दुलहिनियाँ।
कब अँखिया में छइतइ खुमार सजनियाँ की होतइ।। फटल ....