भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नासदीय सूक्त, ऋग्वेद - 10 / 129 / 2 / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:35, 7 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार मुकुल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ओह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओह घरी
मउअत ना रहे
अमरतो ना रहे
रात आउर दिन के
भेदो ना रहे
बिना हवा के शून्‍य में
ओह घरि
बस बरहम रहन
ओकर अलावे
केहू
कहीं ना रहे ॥2॥

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥2॥