भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक कप कॉफी / पूनम गुजरानी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:58, 9 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पूनम गुजरानी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
चले आओ...
फिर एक बार
पीने एक कप
गरमा गरम कॉफी।
कॉफी की थोङी-सी कङवाहट
और रसीली चीनी की
मिठास में
घोल दें
अपनी तमाम परेशानियाँ।
लरजती भाप के साथ
उङा दें अपनी उदासियाँ
उसकी गरमाहट में भूल जाएँ
जिन्दगी के गम।
कॉफी का कप
फकत कप नहीं है
बहाना है
तुम्हें जानने का
महसूस करने का
तुम्हारी शिकायतें सुनने का
और अपनी
ख्वाहिशों का
रंगीन आसमां दिखाने का।
कहो...
कहो आओगे ना
जब सांझ उतरने लगेगी
पर्वत के उस पार
झील के किनारे
उस छोटी-सी गुमटी पर
जहाँ एक कप कॉफी
कर रही है
तुम्हारा इंतज़ार।