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पफसलें हैं सूखी-सूखी / राजकिशोर सिंह

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मुझे अच्छा नहीं लगता अब ये शहर
अच्छी नहीं लगती ऽुशियों की लहर

क्या कहूँ अब जीवन की महपिफल में
चाहता हूँ पी लूँ एक घूँट जहर

सोचा था रहूँगा जीवन भर यहाँ
दिल नहीं लगता अब एक भी पहर

जा रहा था दूसरी नगरी में मैं
पता नहीं कैसे गया यहाँ ठहर

दिऽता हूँगा जग को ऽुशनसीब
पर छाये हैं मुझपर दुःऽ के कहर

मन की पफसलें हैं सूऽी-सूऽी
ऽोदी गयी है जब जगह-जगह नहर।