सन्निपात्त / अरुण कमल
खुरच रहा है चारों तरफ से
देखने को कि देखें क्या है अन्दर
कि देखें यह नाटा आदमी
क्या सोच रहा है भीतर-भीतर
क्या पक रहा है कुम्हार के आवे में
हालाँकि सत्ता अब निश्चिन्त सो रही थी धूप में
क्योंकि लोगों के माथे में गोद दिया गया था कि
जो भिखमंगा बैठा है मंदिर की सीढ़ी पर वही है दुश्मन
जो दुकान के तलघर में बीड़ी बना रहा है वही है दुश्मन
जो बंगाल की खाड़ी में मछली मार रहा है वही है दुश्मन
फिर भी सत्ता कभी सोती नहीं
सो उसने हर तरफ़ से आदमी भेजे
किसी ने कहा मैं पक्ष में बयान दूँ
किसी ने कहा विपक्ष में बयान दूँ
और ये सब वही थे जो कभी न कभी
उसका पुआ खा चुके थे
या जो मुझे गिरवी रख ख़ुद छूटना चाहते थे
और वे सब मेरा दरवाज़ा कोड़ रहे थे
और यहीं मुझे अपने को इस तरह घेरना था
जैसे तार की जाली में पौधा
मेरे कुछ भी कहने यहाँ तक कि हाँ-हूँ से भी डर था