मिथिला में शरत / रामधारी सिंह "दिनकर"
मिथिला में शरत्
किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी?
ऊपर निरभ्र नभ नील-नील,
नीचे घन-विम्बित झील-झील।
उत्तर किरीट पर कनक-किरण,
पद-तल मन्दाकिनि रजत-वरण।
छलकी कण-कण में दिव्य सुधा,
बन रही स्वर्ग मिथिला-वसुधा।
तन की साड़ी-द्युति सघन श्याम
तरु, लता, धान, दूर्वा ललाम।
दायें कोशल ले अर्ध्य खड़ा,
आरती बंग ले वाम-वाम।
दूबों से लेकर बाँसों तक,
गृह-लता, सरित-तट कासों तक,
हिल रही पवन में हरियाली;
वसुधा ने कौन सुधा पा ली?
गाती धनखेतों -बीच परी,
किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी?
क्या शरत्-निशा की बात कहूँ?
जो कुछ देखा था रात, कहूँ?
निर्मल ऋतु की मुख-भरी हँसी,
चाँदनी विसुध भू आन खसी;
मदरसा, विकल, मदमाती-सी,
अपने सुख में न समाती-सी।
गंडकी सुप्त थी रेतों में,
पंछी चुप नीड़-निकेतों में;
‘चुप-चुप’ थी शान्ति सभी घर में;
चाँदनी सजग थी जग-भर में,
हाँ, कम्प जरा हरियाली में,
थी आहट कुछ वैशाली में।
इतने में (उफ़! कविता उमड़ी)
खँडहर से निकली एक परी;
गंडकी-कूल खेतों में आ
हरियाली में हो गई खड़ी।
लट खुली हुई लहराती थी,
मुख पर आवरण बनाती थी;
सपनों में भूल रहा मन था,
उन्मन दृग में सूनापन था।
धानी दुकूल गिर धानों पर
मंजरी-साथ कुछ रहा लहर।
लम्बी बाँहें गोरी-गोरी
उँगलियाँ रूप-रस में बोरी।
कर कभी धान का आलिङ्गन
लेती मंजरियों का चुम्बन।
गंडकी-ओर फिर दृष्टि फेर
देखती लहर को बड़ी देर।
हेरती मर्म की आँखों से
वह कपिलवस्तु-दिशि बेर-बेर।
शारद निशि की शोभा विशाल,
जगती, ज्योत्स्ना का स्वर्ण-ताल,
श्यामल, शुभ शस्यों का प्रसार,
गंडक, मिथिला का कंठहार।
चन्द्रिका-धौत बालुका-कूल,
कंपित कासों के श्वेत फूल;
वह देख-देख हर्षाती है,
कुछ छिगुन-छिगुन रह जाती है।
मिथिला विमुक्त कर हृदय-द्वार
है लुटा रही सौन्दर्य प्यार;
कोई विद्यापति क्यों न आज
चित्रित कर दे छवि गान-व्याज?
कोई कविता मधु-लास-मयी,
अविछिन्न, अनन्त विलास-मयी,
चाँदनी धुली पी हरियाली
बनती न हाय, क्यों मतवाली?
शेखर की याद सताती है,
वह छिगुन-छिगुन रह जाती है।
मैं नहीं चाहता चिर-वसन्त,
जूही-गुलाब की छवि अनन्त;
ग्रीष्म हो, तरु की छाँह रहे;
पावस हो, प्रिय की बाँह रहे;
हो शीत या कि ऊष्मा जवलन्त,
मेरे गृह में अक्षय वसन्त।
औ’शरत्, अभी भी क्या गम है?
तू ही वसन्त से क्या कम है?
है बिछी दूर तक दूब हरी,
हरियाली ओढ़े लता खड़ी।
कासों के हिलते श्वेत फूल,
फूली छतरी ताने बबूल;
अब भी लजवन्ती झीनी है,
मंजरी बेर रस-भीनी है।
कोयल न (रात वह भी कूकी,
तुझपर रीझी, वंशी फूँकी।)
कोयल न, कीर तो बोले हैं,
कुररी-मैना रस घोले हैं;
कवियों की उपमा की आँखें;
खंजन फड़काती है पाँखें।
रजनी बरसाती ओस ढेर,
देती भू पर मोती बिखेर;
नभ नील, स्वच्छ, सुन्दर तड़ाग;
तू शरत् न, शुचिता का सुहाग।
औ’ शरत्-गंग! लेखनी, आह!
शुचिता का यह निर्मल प्रवाह;
पल-भर निमग्न इसमें हो ले,
वरदान माँग, किल्विष धो ले।
गिरिराज-सुता सुषमा-भरिता,
जल-स्त्रोत नहीं, कविता-सरिता।
वह कोमल कास-विकासमयी,
यह बालिका पावन हासमयी;
वह पुण्य-विकासिनि, दिव्य-विभा,
यह भाव-सुहासिनि, प्रेम-प्रभा।
हे जन्मभूमि! शत बार धन्य!
तुझ-सा न ‘सिमरियाघाट’ अन्य।
तेरे खेतों की छवि महान,
अनिमन्त्रित आ उर में अजान,
भावुकता बन लहराती है,
फिर उमड़ गीत बन जाती है।
‘बाया’ की यह कृश विमल धार,
गंगा की यह दुर्गम कछार,
कूलों पर कास-परी फूली,
दो-दो नदियाँ तुझपर भूलीं।
कल-कल कर प्यार जताती हैं,
छू पार्श्व सरकती जाती है।
शारद सन्ध्या, यह उगा सोम,
बन गया सरित में एक व्योम,
शेखर-उर में अब बिंधें बाण,
सुन्दरियाँ यह कर रहीं स्नान।
आग्रीव वारि के बीच खड़ी,
या रही मधुर प्रत्येक परी।
बिछली पड़तीं किरणें जल पर,
नाचती लहर पर स्वर-लहरी।
यह वारि-वेलि फैली अमूल,
खिल गये अनेकों कंज-फूल;
लट नहीं, मुग्ध अलिवृन्द श्याम
कंजों की छवि पर रहे भूल।
डुबकी रमणियाँ लगाती हैं,
लट ऊपर ही लहराती हैं,
जल-मग्न कमल को खोज-खोज
मधुपावलियाँ मँडराती हैं।
लेकिन नालों पर कंज कहाँ,
ऐसे, जैसे ये खिले यहाँ?
नीचे आने विधु ललक रहा,
मृदु चूम परी की पलक रहा;
वह स्वर्ग-बीच ललचाता है,
भू पर रस-प्याला छलक रहा।
परियाँ अब जल से चलीं निकल
तन से लिपटे भींगे अंचल;
चू रही चिकुर से वारि-धार,
मुख-शशि-भय रोता अन्धकार।
विद्यापति! सिक्त वसन तन में,
मन्मथ जाते न मुनी-मन में।
कवि! शरत्-निशा का प्रथम प्रहर,
कल्पना तुम्हारी उठी लहर,
कविता कुछ लोट रही तट में,
लिपटी कुछ सिक्त परी-पट में;
कुछ मैं स्वर में दुहराता हूँ;
निज कविता मधुर बचाता हूँ।
गंगा-पूजन का साज सजा,
कल कंठ-कंठ में तार बजा;
स्वर्गिक उल्लास उमंग यहाँ;
पट में सुर-धनु के रंग यहाँ,
तुलसी-दल-सा परिपूत हृदय,
अति पावन पुण्य-प्रसंग यहाँ।
तितलियाँ प्रदीप जलाती हैं,
शेखर की कविता गाती हैं।
गंगे! ये दीप नहीं बलते,
लघु पुण्य-प्रभा-कण हैं जलते;
अन्तर की यह उजियारी है;
भावों की यह चिनगारी है।
१९३४