भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो सराबों के समुंदर में उतर जाता है / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 10:08, 28 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= प्रफुल्ल कुमार ‘परवेज़’ |संग्रह=रास्ता बनता र...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो सराबों के समंदर में उतर जाता है
गाँव को छोड़ के जब कोई शहर जाता है

ऐसा लगता है कि हारा हो जुए में दिन भर
आदमी शाम को जब लौट के घर जाता है

लूट ले कोई सरे आम तो हैरत कैसी
जब कि हर शख़्स गवाही से मुकर जाता है

आज के दौर से जब कोई सुलह करता है
उसके अंदर का जो इन्सान है मर जाता है

अब तो करता नहीं ख़ुद से भी दुआ और सलाम
आदमी अपने बराबर से गुज़र जाता है.