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कभी कुछ ग़म भी हों हरदम ख़ुशी अच्छी नहीं होती / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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कभी कुछ ग़म भी हो हरदम ख़ुशी अच्छी नहीं होती
हमेशा एक जैसी ज़िन्दगी अच्छी नहीं होती

उसे पाकर तुम अपने आप को भी भूल बैठे हो
किसी पर इतनी भी दीवानगी अच्छी नहीं होती

कभी भी दोस्ती के हक़ में सोचा ही नहीं तुमने
किसे समझा रहे हो दुश्मनी अच्छी नहीं होती

उदासी आपके चेहरे की छा जाती है शेरों पर
ज़रा तो मुस्कुरा दो, शायरी अच्छी नहीं होती

मुकम्मल प्यास तो जागे यहीं फूटेंगे सौ झरने
अधूरी है, अधूरी तिश्नगी अच्छी नहीं होती

तुम्हारे ख़त पे ख़त आते हैं पर मैं आ नहीं सकता
बस इतने के लिए ही नौकरी अच्छी नहीं होती

भटकता है कहाँ हरदम ‘अकेला’ छोड़कर मुझको
मेरे दिल इस क़दर आवारगी अच्छी नहीं होती

बहुत से मामलों में तंगदिल होना ही अच्छा है
‘अकेला’ हर कहीं दरियादिली अच्छी नहीं होती