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सवाल और जवाब / राबर्ट ब्लाई

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बताओ तो कि आजकल हम
आसपास होती घटनाओं पर चीख़ते क्यों नहीं
आवाज़ क्यों नहीं उठाते
तुमने देखा कि
इराक के बारे में योजनाएँ बनाई जा रही हैं
और बर्फ़ की चादर पिघलने लगी है

अपने आपसे पूछता हूँ : जाओ, ज़ोर से चीख़ो!
यह क्या बात हुई कि जवान शरीर हो
और इसकी कोई आवाज़ न हो ?
बुलंद आवाज़ से चीख़ो!
देखो, जवाब कौन देता है
सवाल करो और जवाब हासिल करो।

ख़ासतौर पर हमें अपनी आवाज़ों में दम भरना पड़ेगा
जिससे ये फरिश्तों तक पहुँच सकें -
इन दिनों वे ऊँचा सुनने लगे हैं।
हमारे युद्धों के दौरान
ख़ामोशी से भर दिये गए पात्रों में
गोता लगाकर गुम हो गए हैं वे।

क्या इतने सारे युद्धों के लिए
अपने आपको तैयार कर चुके हैं हम
या अब ख़ामोशी की आदत-सी हो गई है ?
यदि हम अब भी अपनी आवाज़ बुलंद नहीं करेंगे
तो काई न कोई (हमारा अपना ही) हमारा घर लूट ले जाएगा।

ऐसा हो गया है कि
नेरूदा, अख़्मातवा, फ्रेडरिक डगलस जैसे
महान उदघोषकों की आवाज़ सुनकर भी
अब हम गौरैयों जैसे झाड़ियों में दुबक कर
अपनी अपनी जान की ख़ैर मना रहे हैं ?

कुछ विद्धानों ने हमारा जीवन महज सात दिनों का बताया है।
एक हफ़्ते में हम कहाँ तक पहुँचते हैं ?
क्या आज भी गुरुवार ही है ?
फुर्ती दिखाओ, अपनी आवाज़ बुलंद करो।
रविवार देखते-देखते आ जाएगा।

अनुवाद : यादवेन्द्र